इब्तिदा मुझ में इंतिहा मुझ में इक मुकम्मल है वाक़िआ मुझ में भूल बैठा मैं पैकर-ए-ख़ाकी जब से रहता है इक ख़ुदा मुझ में मैं ने मिट्टी से ख़ुद को बाँध लिया जब भरी वक़्त ने हवा मुझ में मेरे चारों तरफ़ है सन्नाटा ऐसी गूँजी है इक सदा मुझ में मैं ने अश्कों पे बंद क्या बाँधा एक सैलाब आ गया मुझ में मेरी तन्हाइयों में आने लगा ढूँड कर रास्ता नया मुझ में मैं ने उस की कभी नहीं मानी जो सदा बोलता रहा मुझ में ठहर जाता है हर परिंदा यहाँ एक जंगल है यूँ बसा मुझ में तू भी सुलगेगा इस में सारी हयात सोच कर आग ये लगा मुझ में उस का हम-ज़ाद साथ रक्खा 'सईद' जब कोई शख़्स भी मरा मुझ में