इक आफ़्ताब का रंग एक माहताब का रंग मिला के ढाला गया है तिरे शबाब का रंग नुमायाँ जिस्म है और शोख़ है नक़ाब का रंग बदल रहा है ज़माने में अब हिजाब का रंग मिली नज़र जो मिरी दफ़अ'तन सर-ए-महफ़िल हया से रुख़ पे तेरे आ गया गुलाब का रंग निकल पड़े हैं जो जुगनू लिए हुए क़िंदील उतर गया है तभी से इस आफ़्ताब का रंग सुना है तख़्त लरज़ते हैं ताज हिलते हैं जो हम ग़ज़ल में मिलाते हैं इंक़लाब का रंग सलीक़ा ज़ीस्त को जीने का हम ने सीखा है सरों पे जब से चढ़ा है तेरी किताब का रंग वो पहले पहले से तेवर हवा हुए देखो उड़ा उड़ा सा है कुछ दिन से अब जनाब का रंग किसी के सर पे चढ़ा रंग 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का किसी के सर पे चढ़ेगा कभी 'शहाब' का रंग