इक आग देखता था और जल रहा था मैं वो शाम आई मगर हाथ मल रहा था मैं ये उम्र कैसे गुज़ारी बस इतना याद है अब उदास रात के सहरा पे चल रहा था मैं बस एक ज़िद थी सो ख़ुद को तबाह करता रहा नसीब उस के कि फिर भी सँभल रहा था मैं भरी थी उस ने रग-ओ-पय में बर्फ़ की ठंडक सो एक बर्फ़ की सूरत पिघल रहा था मैं ख़ुदा-सिफ़त था वो लम्हा कि जिस में गुम हो कर ज़मीं से आसमाँ के दुख बदल रहा था मैं मैं एक अहद था इक अहद की अलामत था हज़ार चेहरों में दिन रात ढल रहा था मैं बस एक अब्र के साए ने आ लिया मुझ को अज़ाब ओढ़ के घर से निकल रहा था मैं