इक अहल-ए-इल्म से इक नुक्ता-वर से निकला था वो ऐब था जो मता-ए-हुनर से निकला था तमाम उम्र वो फिर लौट कर नहीं आया न जाने कौन सी साअ'त में घर से निकला था समझ रहे हैं सभी आसमान को मंज़िल ये सिलसिला मिरे ज़ौक़-ए-सफ़र से निकला था वही तो दे गया दीवार-ओ-दर को वीरानी जो सब्ज़ा कल इन्हीं दीवार-ओ-दर से निकला था बना दिया उन्हीं लफ़्ज़ों ने जिस्म को सूरज जो हर्फ़ हर्फ़ ज़बान-ए-'शरर' से निकला था