इक अरीज़ा है दिल-ए-मुश्ताक़ में रक्खा हुआ आफ़्ताब-ए-इश्क़ है आफ़ाक़ में रक्खा हुआ ज़िंदगी का ज़ाइक़ा मुझ को तवातुर से मिला ज़हर में रखा हुआ तिरयाक़ में रक्खा हुआ नफ़रतों के सब नविश्ते उस ने अज़बर कर लिए है मोहब्बत का सहीफ़ा ताक़ में रखा हुआ बलवा-ए-बातिल में हक़ की ख़ामुशी का साथ दो ये भी नुक्ता है मिरे मीसाक़ में रक्खा हुआ राख उड़ती देख कर मुझ से गुरेज़ाँ क्यों हुए एक शो'ला है अभी चक़माक़ में रक्खा हुआ मैं ने देखा मेरा क़ातिल मुब्तला-ए-ख़ौफ़ है सर मिरा था जिस घड़ी इतबाक़ में रक्खा हुआ लौ न मद्धम होगी 'मंज़र' बुझ न पाएगा कभी ये दिया है सीना-ए-उश्शाक़ में रक्खा हुआ