इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया देखा में जो कुछ सुब्ह उसे शाम न पाया अपनी ही हवस के ये सब उलझाव हैं वर्ना इस राह में हम ने तो कहीं दाम न पाया वो नख़्ल-ए-ख़िज़ाँ-दीदा हूँ उस दश्त में जिस के साये में किसी पहुँचे ने बिसराम न पाया वो बे-सर-ओ-तन है ये ज़माना कि ब-ईं-ग़ौर जिस का मैं कुछ आग़ाज़ और अंजाम न पाया फ़हरिस्त में ख़ूबान-ए-वफ़ादार की प्यारे देखी तो कहीं उस में तिरा नाम न पाया मामूल था दुश्नाम एवज़ अपनी दुआ का सो वो भी कई दिन से मैं इनआम न पाया यक शब वो कहीं गोद में सोया था सो 'क़ाएम' फिर बालिश-ए-मख़मल से मैं आराम न पाया