इक गाम सर-ए-राह-ए-सिपाह आई न दुनिया दरयूज़ा-ए-उक़्बा था सो रास आई न दुनिया महरूम रही सोहबत-ए-मर्दान-ए-रज़ा से किस हुस्न की दहशत थी कि पास आई न दुनिया नाची है बरहना सर-ए-बाज़ार हमेशा इक बार तह-ए-तार-ए-लिबास आई न दुनिया ऐ रांदा-ए-दुनिया तुझे क्या ग़म कि मुझ ऐसे परवर्दा-ए-दुनिया को भी रास आई न दुनिया 'ख़ालिद' उफ़ुक़-ए-ख़ाक रहा रंग में ग़लताँ मुझ तक कभी ले कर तिरी बास आई न दुनिया