इक घड़ी जज़्बा-ए-नफ़रत के सिवा चाहती है ज़िंदगी तुझ से मोहब्बत की दुआ चाहती है क्या करूँ दोस्त तो इतने भी नहीं हैं मेरे रोज़ ये रूह कोई ज़ख़्म नया चाहती है क्या अजब तौर से करती है शिकस्त अपनी क़ुबूल अब ये दुनिया कोई हंगामा बपा चाहती है जिस मोहब्बत के लबों से कभी झड़ते थे गुलाब अब वही लहजा-ए-आशुफ़्ता-नवा चाहती है जान को ज़ख़्म-ए-तमन्ना से इफ़ाक़ा न हुआ फिर नए इश्क़ में पैमान-ए-वफ़ा चाहती है शोहरतें ढल गईं इक उम्र की मानिंद सो अब मौज-ए-रुस्वाई मिरे घर का पता चाहती है मेरे होंटों की तमन्ना भी अजब है 'आफ़ाक़' उस के रुख़्सार पे इक फूल खिला चाहती है