इक इश्क़-ए-ना-तमाम है रुस्वाइयाँ तमाम उगने लगी हैं जिस्म में तन्हाइयाँ तमाम क्या शहर-ए-आरज़ू था बसा और उजड़ गया अब सर-कशीदा फिरती हैं पुरवाइयाँ तमाम साँसों के ज़ेर-ओ-बम से है साग़र में इज़्तिराब जाम-ओ-सुबू से पुर-असर अंगड़ाइयाँ तमाम रोज़-ए-अज़ल से सोचते ज़ेहनों की हम-सफ़र सहरा की धूप और ये परछाइयाँ तमाम हर्फ़-ओ-सदा की लय पे जो उतरा तिरा ख़याल बजने लगी हैं ग़ज़लों में शहनाइयाँ तमाम गरचे पिरोए शे'र में जज़्बात-ए-रंग-ओ-नूर लेकिन बयाँ न हो सकीं गहराइयाँ तमाम उठते रहे हैं शान से यारान-ए-मय-कदा होती रही हैं दहर से रानाइयाँ तमाम आमद का सिलसिला नहीं शेर-ओ-सुख़न में आज फैली हुई हैं क़ाफ़िया-पैमाइयाँ तमाम 'ज़ाकिर' नशिस्त-ए-दर्द मक़ाम-ए-ख़िरद भी है मंसूब इस ख़िरद से है बीनाइयाँ तमाम