इक जुस्तुजू सदा ही से ज़ेहन-ए-बशर में है जब से मिली ज़मीन मुसलसल सफ़र में है हर-चंद मेरे साथ उदासी सफ़र में है रौशन चराग़-ए-शौक़ मगर चश्म-ए-तर में है मल्लाह कह रहा है कि साहिल है बस क़रीब लेकिन मुझे पता है कि कश्ती भँवर में है तुम से कभी जो बोल न पाया मैं एक बात बन कर ख़लिश वो आज भी मेरे जिगर में है बर्बादियों की ज़द पे फ़क़त शाख़-ए-गुल नहीं गुलशन तमाम नरग़ा-ए-बर्क़-ओ-शरर में है जब से मैं उन के हल्का-ए-बैअ'त में आ गया 'नायाब' एक रौशनी फ़िक्र-ओ-नज़र में है