इक क़िस्सा-ए-तवील है अफ़्साना दश्त का आख़िर कहीं तो ख़त्म हो वीराना दश्त का मुझ को भी ग़र्क़ बहर-ए-तमाशा में कर दिया अब हद से बढ़ता जाता है दीवाना दश्त का तावीज़-ए-आब के सिवा चारा नहीं कोई आसेब-ए-तिश्नगी से है याराना दश्त का तू ने शिकस्त खाई महाज़-ए-क़याम पर अब सिक्का-ए-सफ़र में दे हर्जाना दश्त का होता नहीं जो ख़ाली कभी जाम-ए-आफ़्ताब दिन भर ही गर्म रहता है मय-ख़ाना दश्त का अब ज़ुल्मतों का ख़ौफ़ नहीं ख़ाक-ए-शहर की रौशन है शम्अ-ए-रेग से काशाना दश्त का आदाब-ए-मुंसिफ़ी से मैं वाक़िफ़ नहीं 'हसन' शहर-ए-ख़ता में करता हूँ जुर्माना दश्त का