इक निगाह-ए-बेरुख़ी से ग़र्क़ होते ज़ाइक़े लो चखो तहलील ग़र्ब-ओ-शर्क़ होते ज़ाइक़े तब समझ में आ भी जाते उन की दूरी के सबब जब ज़मीन-ओ-आसमाँ के फ़र्क़ होते ज़ाइक़े तू समझ सकता नहीं है इश्क़ की मेराज को तू ने चक्खे ही नहीं हैं बर्क़ होते ज़ाइक़े उम्र गुज़री पर न समझा ज़ाइक़ों के फ़र्क़ को ज़र्क़ लगते ज़ाइक़े थे बर्क़ होते ज़ाइक़े