इक रात हम ऐसे मिलें जब ध्यान में साए न हों जिस्मों की रस्म-ओ-राह में रूहों के सन्नाटे न हों हम भी बहुत मुश्किल न हों तू भी बहुत आसाँ न हो ख़्वाबों की ज़ंजीरें न हों राज़ों के वीराने न हों ऐ काश ऐसा कर सकें आँखों को ज़िंदा कर सकें ये क्या कि दिल में गर्द हो आँखों में आईने न हों हैं तेज़ दुनिया के क़दम शायद सजल चल पाएँ हम इस बेसवा रफ़्तार में यादों से क्यूँ रिश्ते न हों शौक़-ए-फ़रावाँ से परे लज़्ज़त के ज़िंदाँ से परे उस आग में सुलगें ज़रा जिस में कभी सुलगे न हों