इक तमन्ना कि सहर से कहीं खो जाती है शब को आ कर मिरे आग़ोश में सो जाती है ये निगाहों के अंधेरे नहीं छटने पाते सुब्ह का ज़िक्र नहीं सुब्ह तो हो जाती है रिश्ता-ए-जाँ को सँभाले हूँ कि अक्सर तिरी याद इस में दो-चार गुहर आ के पिरो जाती है दिल की तौफ़ीक़ से मिलता है सुराग़-ए-मंज़िल आँख तो सिर्फ़ तमाशों ही में खो जाती है कब मुझे दावा-ए-इस्मत है मगर याद उस की जब भी आ जाती है दामन मिरा धो जाती है नाख़ुदा चारा-ए-तूफ़ाँ करे कोई वर्ना अब कोई मौज सफ़ीने को डुबो जाती है कर चुका जश्न-ए-बहाराँ से मैं तौबा 'हक़्क़ी' फ़स्ल-ए-गुल आ के मिरी जान को रो जाती है