इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है वक़्त के साथ कमी प्यार में आ जाती है बस कहीं छोर समुंदर का नज़र आ जाए कोई ताक़त मिरी पतवार में आ जाती है वो गुज़रता है तो खुलते हैं दरीचे घर के इक चमक सी दर-ओ-दीवार में आ जाती है टूटे घुंघरू की जो आवाज़ हुआ करती है वो खनक क्यूँ मिरी गुफ़्तार में आ जाती है जब भी आता है मिरा नाम तिरे होंटों पर ख़ुश्बू-ए-गुल मिरे अशआर में आ जाती है हर घड़ी अपनी तमन्नाओं से लड़ते लड़ते इक चमक चेहरा-ए-ख़ुद्दार में आ जाती है जब ग़ज़ल 'मीर' की पढ़ता है पड़ोसी मेरा इक नमी सी मिरी दीवार में आ जाती है