इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया हर बुल-हवस ने मय-कदा सर पर उठा लिया मौजों के इत्तिहाद का आलम न पूछिए क़तरा उठा और उठ के समुंदर उठा लिया तरतीब दे रहा था मैं फ़हरिस्त-ए-दुश्मनान यारों ने इतनी बात पे ख़ंजर उठा लिया मैं ऐसा बद-नसीब कि जिस ने अज़ल के रोज़ फेंका हुआ किसी का मुक़द्दर उठा लिया