इक उम्र भटकते रहे घर ही नहीं आया साहिल की तमन्ना थी नज़र ही नहीं आया रौशन हैं जहाँ शम-ए-मोहब्बत की क़तारें वो कुंज-ए-कम-आसार नज़र ही नहीं आया मैं झूट को सच्चाई के पैकर में सजाता क्या कीजिए मुझ को ये हुनर ही नहीं आया वो गुम्बद-ए-बे-दर था कि दीवार-ए-अना थी मंज़र कोई बाहर का नज़र ही नहीं आया इक ऐसा सफ़र भी मुझे दरपेश था लोगो कुछ काम जहाँ ज़ाद-ए-सफ़र ही नहीं आया बैठे रहे पलकों को बिछाए सर-ए-राहे वो जान-ए-जहाँ-गश्त इधर ही नहीं आया इक पल को जहाँ बैठा हूँ थक कर कभी 'अख़्तर' रस्ते में कोई ऐसा शजर ही नहीं आया