इन दिनों शाम ऐसे आती है मौज-ए-ख़ूँ में नहा के जाती है एक सहरा मुझे बुलाता है एक वहशत गले लगाती है पहले हम धूप में झुलसते थे अब तो ये छाँव भी जलाती है कितनी मासूम है वफ़ा अपनी बेवफ़ाई हँसी उड़ाती है ग़ैर की बात उस से क्यों पूछी उस की सच्चाई अब रुलाती है कितने इश्वे हैं इक मोहब्बत के कितने पहलू से आज़माती है एक दिन ए'तिबार टूटा था अब तो हर चीज़ टूट जाती है ख़्वाब आँखों में जब भी आता है एक ता'बीर मुँह चिढ़ाती है तीर कैसा था जाने ऐ 'ख़ालिद' रूह ज़ख़्मों से छटपटाती है