आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए दरमियाँ हम उन के हाइल हो गए कुछ न होते होते इक दिन ये हुआ सैकड़ों सदियों का हासिल हो गए कश्तियाँ आ कर गले लगने लगीं डूब कर आख़िर को साहिल हो गए और एहसास-ए-जिहालत बढ़ गया किस क़दर पढ़ लिख के जाहिल हो गए अपनी अपनी राह चलने वाले लोग भीड़ में आख़िर को शामिल हो गए तंदुरुस्ती ज़ख़्म-ए-कारी से हुई ये हुआ शर्मिंदा क़ातिल हो गए हुस्न तो पूरा अधूरे-पन में है सब अधूरे माह-ए-कामिल हो गए