इंसाँ को अपनी ज़ात का इदराक ही नहीं अब कोई वारदात अलमनाक ही नहीं मज़लूम के लहू का न हो जिस पे कोई दाग़ ऐसी सिपाह-ए-वक़्त की पोशाक ही नहीं इस दौर में हिफ़ाज़त-ए-ईमाँ के वास्ते हैदर की मिस्ल तेग़-ए-ग़ज़बनाक ही नहीं आ'माल हैं सियाह हमारे मगर हमें शिकवा है मेहरबानी-ए-अफ़्लाक ही नहीं रहमत ख़ुदा की जोश में आए तो कैसे आए सैलाब-ए-अश्क-दीदा-ए-नमनाक ही नहीं पहले बुलंद करता था 'अनवर' सदा-ए-हक़ लेकिन अब इस में जुरअत-ए-बे-बाक ही नहीं