इंसान पे क्या गुज़र रही है इंसानियत आहें भर रही है अब क्या है दिफ़ा-ए-ज़ुल्म के पास तारीख़ सवाल कर रही है दीवारें तो सारी हैं उधर की और छाँव इधर उतर रही है गुम अपनी हवा में हैं मछेरे मौज अपनी जगह बिफर रही है आसूदा-ए-ग़म है कोई रुत हो वो शाख़ जो बे-समर रही है अपनी ही ख़बर रही है उन को और अपनी भी क्या ख़बर रही है ख़ुद कूज़े बनाए ख़ुद बिखर जाए ये क़िस्मत-ए-कूज़ा-गर रही है