'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें मिल बैठ के लोगों में आ अपने ख़ला काटें जो करना है अब कर लें हम तुम से न कहते थे अब संग-सितम चाहें होने की सज़ा काटें अब बाँझ ज़मीनों से उम्मीद भी क्या रखना रोएँ भी तो ला-हासिल बोएँ भी तो क्या काटें पर ले के किधर जाएँ कुछ दूर तक उड़ आएँ दम जितना मयस्सर है ये ठहरी हवा काटें इस मरहला-ए-शब में अब एक ही सूरत है या दश्त-ए-तलब पाटें या गर्दिश-ए-पा काटें