इरफ़ान-ओ-आगही के सज़ा-वार हम हुए सोया पड़ा था शहर कि बेदार हम हुए ता उम्र इंतिज़ार सही पर ब-रोज़-ए-हश्र अच्छा हुआ कि तेरे तलबगार हम हुए हम पर वफ़ा-ए-अहद अनल-हक़ भी फ़र्ज़ था इस वास्ते कि महरम-ए-असरार हम हुए ठहरेगी एक दिन वही मेराज-ए-बंदगी जो बात कह के आज गुनहगार हम हुए होते गए वो ख़ल्क़-फ़रेबी में होशियार जितना कि तजरिबे से समझदार हम हुए नादान थे कि मसनद-ए-इरशाद छोड़ कर हल्क़ा-ब-गोश-ए-सीरत-ओ-किरदार हम हुए इस दौर-ए-ख़ुद-फ़रोश में 'अख़्तर' ब-सद ख़ुलूस ख़म्याज़ा-संज-ए-जुरअत-ए-इज़हार हम हुए