इस बाग़ में वो संग के क़ाबिल कहा न जाए जब तक किसी समर को मिरा दिल कहा न जाए शाख़ों पे नोक-ए-तेग़ से क्या क्या खिले हैं फूल अंदाज़-ए-लाला-कारी-ए-क़ातिल कहा न जाए किस के लहू के रंग हैं ये ख़ार शोख़-रंग क्या गुल कतर गई रह-ए-मंज़िल कहा न जाए बाराँ के मुंतज़िर हैं समुंदर पे तिश्ना-लब अहवाल-ए-मेज़बानी-ए-साहिल कहा न जाए मेरे ही संग-ओ-ख़िश्त से तामीर-ए-बाम-ओ-दर मेरे ही घर को शहर में शामिल कहा न जाए ज़िंदाँ खुला है जब से हुए हैं रिहा असीर हर गाम है वो शोर-ए-सलासिल कहा न जाए हम अहल-ए-इश्क़ में नहीं हर्फ़-ए-गुनह से कम वो हर्फ़-ए-शौक़ जो सर-ए-महफ़िल कहा न जाए जिस हाथ में है तेग़-ए-जफ़ा उस का नाम लो 'मजरूह' से तो साए को क़ातिल कहा न जाए