इस दौर में ऐसा कोई इंसान नहीं है जो सोज़िश-ए-पिन्हाँ से परेशान नहीं है ले डूबी तमन्ना-ए-गुहर मुझ को भी यारो दरिया से उभरने का अब इम्कान नहीं है हम पर ही बस इल्ज़ाम लगा जलते दिनों का इक तल्ख़ हक़ीक़त है ये बोहतान नहीं है हर गाम पे है दिल के लुटेरों का बसेरा इस राह पे चलना कोई आसान नहीं है एहसास के साहिल पे खड़ा सोच रहा हूँ लफ़्ज़ों के समुंदर में वो तूफ़ान नहीं है भँवरे तो बहुत चाव से फिर आते हैं 'अंजुम' और आज मिरी मेज़ पे गुल-दान नहीं है