इस घनी शब का सवेरा नहीं आने वाला अब कहीं से भी उजाला नहीं आने वाला जिब्रईल अब नहीं आएँगे ज़मीं पर हरगिज़ फिर से आयात का तोहफ़ा नहीं आने वाला हो गए दफ़्न शब-ओ-रोज़ पुराने कब के लौट कर फिर वो ज़माना नहीं आने वाला पेड़ तो सारे ही बे-बर्ग हुए जाते हैं धूप तो आएगी साया नहीं आने वाला ये भी सच है कि अजल बन के खड़े हैं अमराज़ ये भी तय है कि मसीहा नहीं आने वाला हम को सहना है अकेले ही हर इक दर्द का बोझ ख़ैर-ख़्वाहों का दिलासा नहीं आने वाला मेरे अफ़्कार के सोते नहीं थमने वाले मेरी सोचों पे बुढ़ापा नहीं आने वाला नए लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा भी तो हो सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से लहजा नहीं आने वाला झूट बे-पाँव भी दौड़ेगा बहुत तेज़ 'ख़ुमार' लब पे सच्चाई का चर्चा नहीं आने वाला