इस क़दर हिज्र के धागों से निकल आया था मैं तिरी याद के रेशों से निकल आया था टीस उट्ठी थी कहीं ज़ेर-ए-ज़मीं और इधर शहर का शहर मकानों से निकल आया था रात ख़ामोशी मिरे जिस्म में यूँ फैली थी लम्स का शोर भी कानों से निकल आया था मैं ने फेंका था उसे तैश मैं आ कर लेकिन अश्क तस्वीर की आँखों से निकल आया था मैं ने इक पेड़ के साए में दुआ माँगी थी और परिंदा मिरी पोरों से निकल आया था उस ने आवाज़ की तख़्ती पे मिरा नाम लिखा और मैं लफ़्ज़ के होंटों से निकल आया था मैं ने क़िर्तास पे रक्खी थी फ़क़त आँख 'मुनीर' ख़्वाब तहरीर की दर्ज़ों से निकल आया था