इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई क्यूँ लौट के घर अपने आया ही नहीं कोई अब शहर की ख़ामोशी वीराने से मिलती है आवाज़ लगाई तो बोला ही नहीं कोई हर रोज़ दिखाई दें सब लोग वहीं लेकिन जब ढूँडने निकलें तो मिलता ही नहीं कोई होने से कि जिन के था बस्ती का भरम क़ाएम अतराफ़ में शहरों के सहरा ही नहीं कोई थक-हार के आ बैठे उस पेड़-तले आख़िर जिस पेड़-तले 'फ़र्रुख़' साया ही नहीं कोई