इस रियाज़त का मिरी जान सिला कुछ भी नहीं इश्क़ का खेल शरारों के सिवा कुछ भी नहीं ज़ब्त के कौन-से ज़ीने पे मैं आ पहुँची हूँ हाथ उट्ठे हैं मगर हर्फ़-ए-दुआ कुछ भी नहीं अब तो ख़ुर्शेद ब-कफ़ हम को उभरना होगा इन अँधेरों में फ़क़त एक दिया कुछ भी नहीं ऐसे लगता था कि दुनिया ही उजड़ जाएगी ख़ौफ़ था चारों तरफ़ और हुआ कुछ भी नहीं ख़ामुशी ख़ुद है तकल्लुम का वसीला 'सय्यद' दश्त-ए-हैरत है यहाँ सौत-ओ-सदा कुछ भी नहीं