इस से पहले कि ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ को समझो हो सके गर तो मिरे ग़म की ज़बाँ को समझो लफ़्ज़-ओ-मा'नी से अलग है मिरे एहसास का रंग हो सके तुम से तो अंदाज़-ए-बयाँ को समझो हुस्न है वहम-ए-मोहब्बत भी गुमाँ है लेकिन दिल ये कहता है कि हर वहम-ओ-गुमाँ को समझो तुम समझते ही नहीं रंग-ए-शिकस्ता की ज़बाँ कौन कहता है कि तुम मेरी फ़ुग़ाँ को समझो है ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ फ़िक्र-ओ-नज़र की पस्ती आगही ये है कि आशोब-ए-जहाँ को समझो