इस शहर में कहीं पे हमारा मकाँ भी हो बाज़ार है तो हम पे कभी मेहरबाँ भी हो जागें तो आस-पास किनारा दिखाई दे दरिया हो पुर-सुकून खुला बादबाँ भी हो इक दोस्त ऐसा हो कि मिरी बात बात को सच मानता हो और ज़रा बद-गुमाँ भी हो रस्ते में एक पेड़ हो तन्हा खड़ा हुआ और उस की एक शाख़ पे इक आशियाँ भी हो उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो हम उस जगह चले हैं जहाँ ये ज़मीं नहीं अच्छा हो गर वहाँ पे नया आसमाँ भी हो