इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे ऐसा न हो ज़मीं का जवाब आसमान दे पढ़ना है तो नविश्ता-ए-बैनस्सुतूर पढ़ तहरीर-ए-बे-हुरूफ़ के मअनी पे ध्यान दे सूरज तो क्या बुझेगा मगर ऐ हवा-ए-महर तपती ज़मीं पे अब्र की चादर ही तान दे अब धूप से गुरेज़ करोगे तो एक दिन मुमकिन है साया भी न कोई साएबान दे मैं सोचता हूँ इस लिए शायद मैं ज़िंदा हूँ मुमकिन है ये गुमान हक़ीक़त का ज्ञान दे मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़ तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे सूरज के गिर्द घूम रहा हूँ ज़मीं के साथ इस गर्दिश-ए-मुदाम से मुझ को अमान दे मैं तंगी-ए-मकाँ से न हो जाऊँ तंग-दिल अपनी तरह मुझे भी कोई ला-मकान दे मेरी गवाही देने लगी मेरी शाएरी यारब मिरे सुख़न को वो हुस्न-ए-बयान दे