इस तरह आह कल हम उस अंजुमन से निकले फ़स्ल-ए-बहार में जूँ बुलबुल चमन से निकले आती लपट है जैसी उस ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं से क्या ताब है जो वो बू मुश्क-ए-ख़ुतन से निकले तुम को न एक पर भी रहम आह शब को आया क्या क्या ही आह ओ नाले अपने दहन से निकले अब है दुआ ये अपनी हर शाम हर सहर को या वो बदन से लिपटे या जान तन से निकले तो जानियो मुक़र्रर उस को 'सुरूर' आशिक़ कुछ दर्द की सी हालत जिस के सुख़न से निकले