इस तरह रुख़ फेरते हो सुनते ही बोसे की बात शाह-ए-मा'शूक़ाँ के आगे क्या है ये एती बिसात क्यूँ न दौड़े तब दिवाना हो के मजनूँ दश्त कूँ जब लिखी हो आशिक़ाँ की शाख़-ए-आहू पे बरात झिलझिलाती है महीं जामे सीं तेरे तन की जोत माह का ख़िर्मन है ऐ ख़ुर्शीद-रू तेरा योगात सौ गिरह थी दिल में मेरे ख़ोशा-ए-अंगूर जूँ एक प्याले सीं किया साक़ी नें हल्ल-ए-मुश्किलात कुछ कहो 'यकरू' पिया दर सीं तिरे टलता नहीं बूझता है एक ये घर जानता नहिं पाँच सात