इस तिलिस्म-ए-रोज़-ओ-शब से तो कभी निकलो ज़रा कम से कम विज्दान के सहरा ही में घूमो ज़रा नाम कितने ही लिखे हैं दिल की इक मेहराब पर होगा इन में ही तुम्हारा नाम भी ढूँडो ज़रा बद-गुमानी की यही ग़ैरों को काफ़ी है सज़ा मुस्कुरा कर फिर उसी दिन की तरह देखो ज़रा वक़्त के पत्थर के नीचे इक दबा चश्मा हूँ मैं आओ प्यासो मिल के ये पत्थर उठाओ तो ज़रा हुस्न इक दरिया है सहरा भी हैं उस की राह में कल कहाँ होगा ये दरिया ये भी तो सोचो ज़रा दो कलों के बीच में इक आज हूँ उलझा हुआ मेरी इस कम-फ़ुर्सती के कर्ब को समझो ज़रा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ भी अब हुई जाती है तंग और भी कुछ ऐ जुनूँ वालो अभी सिम्टो ज़रा थक गए होगे बहुत पुर-पेच थी चाहत की राह आओ मेरी गोद में सर रख के सुस्ता लो ज़रा एक मिटते लफ़्ज़ के भी काम आ जाओ कभी संग-ए-दिल पर मिटने से पहले मुझे लिख लो ज़रा है तआक़ुब में 'नईमी' साया सा इक रोज़ ओ शब दोस्त ही शायद हो कोई मुड़ के तो देखो ज़रा