इश्क़ फिर इश्क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे है होश के दौर में भी जामा-दरी माँगे है हाए आग़ाज़-ए-मोहब्बत में वो ख़्वाबों के तिलिस्म ज़िंदगी फिर वही आईना-गरी माँगे है दिल जलाने पे बहुत तंज़ न कर ऐ नादाँ शब-ए-गेसू भी जमाल-ए-सहरी माँगे है मैं वो आसूदा-ए-जल्वा हूँ कि तेरी ख़ातिर हर कोई मुझ से मिरी ख़ुश-नज़री माँगे है तेरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों से ब-अंदाज़-ए-हसीं जाने क्या चीज़ नसीम-ए-सहरी माँगे है आप चाहें तो तसव्वुर भी मुजस्सम हो जाए ज़ौक़-ए-आज़र तो नई जल्वागरी माँगे है हुस्न ही तो नहीं बेताब-ए-नुमाइश 'उनवाँ' इश्क़ भी आज नई जल्वागरी माँगे है