इश्क़ का खेल ब-हर-हाल गवारा होता तुम न होते तो कोई और हमारा होता ख़ूब चमका था सर-ए-अर्श मगर डूब गया काश सूरज को भी तिनके का सहारा होता पाल ही रक्खी थी जब दौलत-ए-दुनिया की हवस कैसे फिर सब्र-ओ-क़नाअत पे गुज़ारा होता उस को मैं हिज्र का उन्वान बना कर पढ़ता नामा-ए-इश्क़ में हल्का सा इशारा होता कैसे आदम यहाँ इबलीस भी सज्दे करता नाएब-अल्लाह का गर जग में इजारा होता तंग-दामाँ ही सही दिल तो कुशादा रखता बहता दरिया न सही काश किनारा होता इस बहाने से मैं कुछ ख़्वाब सुनहरे करता कम से कम शहर में तुम सा कोई प्यारा होता फिर यहाँ सब ही मिरे चाहने वाले निकले इस भरे शहर में कोई तो हमारा होता एक इक कर के सभी छोड़ चले मक़्तल को ऐसे हालात में क़ातिल को पुकारा होता बह गए हम भी बिला-वज्ह अना की रौ में और कुछ दिन तिरे कूचे में गुज़ारा होता