इश्क़ के अक़्लीम में चाल-ओ-चलन कुछ और है है निराला ढंग वाँ का और अजाइब तौर है ख़ून-ए-दिल पीती हैं वाँ और खाती हैं लख़्त-ए-जिगर लुत्फ़ के बदले उठाने को जफ़ा-ओ-जौर है उन की गलियों में नहीं होता गुज़र ही अक़्ल का है जुनूँ का बंद-ओ-बस्त और आशिक़ी का दौर है ज़िंदगी और मर्ग शादी और ग़म और नेक-ओ-बद एक साँ हैं सब वहाँ लेकिन मक़ाम-ए-ग़ौर है ला-मकाँ है वास्ते उन की मक़ाम-ए-बूद-ओ-बाश गो ब-ज़ाहिर कहने को कलकत्ता और लाहौर है आह-ओ-नाला की चला करती हैं वाँ तीर-ओ-सिनान जो कि जाता है वहाँ रहता वहीं वो ठोर है इब्तिदा में जीते जी मर जाना पड़ता है वहाँ पर जो मर जाता है वाँ जीता वहीं फ़िल-फ़ौर है हूँ मैं जान-ओ-दिल से 'आसिम' शाह-ए-ख़ादिम पर फ़िदा इश्क़ के किश्वर में जिस की शान-ओ-शौकत और है