इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई यार से मुझ को नदामत हो गई ख़ाक अर्ज़-ए-मुद्दआ उस से करूँ जिस को बातों में कुदूरत हो गई याँ से जाने को हैं वो आचुक कहीं क्या बला ऐ अब्र-ए-रहमत हो गई अब सितम अग़्यार पर करने लगे मेरे मर जाने से इबरत हो गई जल्वा-ए-मअ'नी नज़र आने लगा पीते पीते मय ये सूरत हो गई उन की बातें उस ने भी छुप कर सुनीं आज नासेह को नसीहत हो गई मन्अ-ए-वस्ल-ए-ग़ैर पर हँस कर कहा बारे अब तुम को भी ग़ैरत हो गई बू-ए-गुल उस गुल की बू के रू-ब-रू फ़िल-हक़ीक़त बे-हक़ीक़त हो गई बस न फ़रमाते फिरो ये 'शेफ़्ता' गो उन्हें तुम से मोहब्बत हो गई