इश्क़ को दिल में छुपा लेते हैं कामिल क्यूँकर

इश्क़ को दिल में छुपा लेते हैं कामिल क्यूँकर
उन पर आसान हुआ करती है मुश्किल क्यूँकर

हदफ़-ए-नाविक-ए-मिज़्गान-ओ-कमाँ अबरू था
न तड़पता शब-ए-फ़ुर्क़त दिल-ए-बिस्मिल क्यूँकर

अपने बीमार-ए-मोहब्बत को भी लेते जाओ
तुम चले जाते हो पहलू में रहे दिल क्यूँकर

सर कटा कर तिरे कूचे में यही देखूँगा
सुरख़-रू होता है ख़ंजर तिरा क़ातिल क्यूँकर

मिरअत-ए-दिल की सफ़ाई वो कहाँ पाएगा
आइना होगा रुख़-ए-यार के क़ाबिल क्यूँकर

ये तमाशा भी मिरे दिल को जिला कर देखो
शम्अ' हसरत से जली बर-सर-ए-महफ़िल क्यूँकर

बहर-ए-उल्फ़त में भी वहशत थी दिल-ए-ग़म-गीं को
रखता आग़ोश में फिर दामन-ए-साहिल क्यूँकर

देखना लुत्फ़ दम-ए-क़त्ल ज़रा ऐ क़ातिल
ख़ाक-ओ-ख़ूँ में हुआ ग़लताँ तिरा बिस्मिल क्यूँकर

ज़ेर-ए-ख़ंजर मिरे ख़ूँ ने उसे उड़ कर थामा
उस के पंजे से छुटे दामन-ए-क़ातिल क्यूँ कर

देखना गर हो तो आओ मैं दिखा दूँ तुम को
बन गया शेख़-ए-हरम बुत-कदा-ए-दिल क्यूँकर

राज़-ए-सर-बस्ता 'जमीला' मैं कहूँ क्या तुझ से
हो गया मेरा ये दिल आरिफ़-ए-कामिल क्यूँकर


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