इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़ चर्ख़-ए-गर्दां को सुकूँ से क्या ग़रज़ दिल में है ऐ ख़िज़्र गर सिदक़-ए-तलब राह-रौ को रहनुमों से क्या ग़रज़ हाजियो है हम को घर वाले से काम घर के मेहराब ओ सुतूँ से क्या ग़रज़ गुनगुना कर आप रो पड़ते हैं जो उन को चंग ओ अरग़नूँ से क्या ग़रज़ नेक कहना नेक जिस को देखना हम को तफ़्तीश-ए-दरूँ से क्या ग़रज़ दोस्त हैं जब ज़ख़्म-ए-दिल से बे-ख़बर उन को अपने अश्क-ए-ख़ूँ से क्या ग़रज़ इश्क़ से है मुजतनिब ज़ाहिद अबस शेर को सैद-ए-ज़बूँ से क्या ग़रज़ कर चुका जब शैख़ तस्ख़ीर-ए-क़ुलूब अब उसे दुनिया-ए-दूँ से क्या ग़रज़ आए हो 'हाली' पए-तस्लीम याँ आप को चून-ओ-चगूँ से क्या ग़रज़