इश्क़ मजबूर-ए-फ़ुग़ाँ ऐ दिल-ए-नाशाद नहीं ये तो इक हुस्न की ताईद है फ़रियाद नहीं लज़्ज़त-ए-बे-ख़ुदी-ए-दीद की रूदाद न पूछ इक फ़साना है जो कुछ याद है कुछ याद नहीं एक पाबंद-ए-वफ़ा एक जफ़ा का पाबंद इश्क़ मजबूर सही हुस्न भी आज़ाद नहीं हुस्न-ए-मा'नी की तमाशाई हैं नज़रें मेरी पढ़ रहा हूँ वो सहीफ़े जो मुझे याद नहीं और बेदार हुआ इश्क़-ओ-वफ़ा का एहसास कौन कहता है कि कुछ हासिल-ए-बेदाद नहीं मेरे मेयार-ए-मोहब्बत को न पूछो मुझ से इंतिहा ये है कि अब तुम भी मुझे याद नहीं ख़ाक समझेगा वो असरार-ए-मोहब्बत ऐ दोस्त जो मिरी तरह तिरे इश्क़ में बर्बाद नहीं मेरे दिल में तिरी तस्कीन के सौ पहलू थे ओ मिरे भूलने वाले तुझे क्या याद नहीं यास-ओ-हिरमाँ का ये आलम है कि अल्लाह अल्लाह अब ये दिल तेरे तसव्वुर से भी आबाद नहीं लज़्ज़त-ए-इश्क़ है बेदाद-ओ-सितम के दम से वो चमन ही नहीं जिस में कोई सय्याद नहीं अब भी मिलता है मुझे 'आरज़ू' इशरत का पयाम माइल-ए-ऐश मगर ख़ातिर-ए-नाशाद नहीं