इश्क़ में नय ख़ौफ़-ओ-ख़तर चाहिए जान के देने को जिगर चाहिए क़ाबिल-ए-आग़ोश सितम दीदगाँ अश्क सा पाकीज़ा गुहर चाहिए हाल ये पहुँचा है कि अब ज़ोफ़ से उठते पलक एक पहर चाहिए कम है शनासा-ए-ज़र-ए-दाग़-ए-दिल उस के परखने को नज़र चाहिए सैंकड़ों मरते हैं सदा फिर भी याँ वाक़िआ' इक शाम-ओ-सहर चाहिए इश्क़ के आसार हैं ऐ बुल-हवस दाग़ ब-दिल-ए-दस्त बसर चाहिए शर्त सलीक़ा है हर इक अमर में ऐब भी करने को हुनर चाहिए जैसे जरस पारा गुलो क्या करूँ नाला-ओ-अफ़्ग़ाँ में असर चाहिए ख़ौफ़ क़यामत का यही है कि 'मीर' हम को जिया बार-ए-दिगर चाहिए