इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा तुख़्म-ए-एहसास-ए-वफ़ा संग में बोना चाहा आने वाले किसी तूफ़ान का रोना रो कर ना-ख़ुदा ने मुझे साहिल पे डुबोना चाहा संग-दिल क्यूँ न कहें बुत-कदे वाले मुझ को मैं ने पत्थर का परस्तार न होना चाहा हज़रत-ए-शैख़ न समझे मिरे दिल की क़ीमत ले के तस्बीह के रिश्ते में पिरोना चाहा कोई मज़कूर न था ग़ैर का लेकिन तुम ने बातों बातों में ये नश्तर भी चुभोना चाहा दीदा-ए-तर से भी सरज़द हुआ इक जुर्म-ए-अज़ीम हश्र में नामा-ए-आमाल को धोना चाहा मरते मरते भी तवक़्क़ो रही दिलदारी की रख के सर ज़ानू-ए-तक़दीर पे सोना चाहा हाए किस दर्द से की ज़ब्त की तल्क़ीन मुझे हँस पड़े दोस्त जो मैं ने कभी रोना चाहा जिंस-ए-शोहरत बहुत अर्ज़ां थी मगर मैं ने 'हफ़ीज़' दौलत-ए-दर्द को बे-कार न खोना चाहा