इश्क़ उस से किया है तो ये गर याद भी रक्खो अपने लिए हर दिन नई उफ़्ताद भी रक्खो ख़ुद अपने लिए आप सज़ा भी करो तज्वीज़ मुंसिफ़ भी बनो उजरती जल्लाद भी रक्खो जो हाथ करे बख़िया-गरी चाक-ए-जिगर की उस हाथ में अब ख़ंजर-ए-बेदाद भी रक्खो हम लोग तो हर-हाल में रहते हैं सदा ख़ुश जो ख़ुश नहीं रहते उन्हें नाशाद भी रक्खो मुमकिन हो तो इस अंजुमन-आराई में ताज़ा इक ज़ख़्म-ए-दिल-ए-ख़ानमाँ-बर्बाद भी रक्खो जिस शख़्स ने दी लिख के तुम्हें अपनी असीरी उस शख़्स को इक पल कभी आज़ाद भी रक्खो ये कार-ए-जहाँ अब तो समेटा नहीं जाता बेहतर है कि अपना कोई हम-ज़ाद भी रक्खो शीशे में उतारो किसी नाज़ुक सी परी को क़ब्ज़े में कोई अपने परी-ज़ाद भी रक्खो ये घर कोई मेहमान-सरा तो नहीं जिस में इक पल भी न ठहरो उसे आबाद भी रक्खो आता है हमें जाँ से गुज़रने का अमल ख़ूब तुम चाहो तो तेग़-ए-सितम-ईजाद भी रक्खो ये ज़ीस्त जू-ए-शीर है ऐ 'खुसरव'-ए-सानी लाज़िम है तुम्हें तेशा-ए-फ़र्हाद भी रक्खो