इतना जाँ-सोज़ मिरे शहर का सन्नाटा है मुझ को वीरानों की तक़दीर पे रश्क आता है सर पे जलती हुई इक धूप है ता-हद्द-ए-नज़र मेरा साया मिरे क़दमों पे छुपा जाता है 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की रिवायात से बद-ज़न शाइ'र बे-इरादा भी उसी राह पर आ जाता है काँप जाता हूँ कि बढ़ने को हैं ग़म के साए जब कोई लम्हा मसर्रत ब-कनार आता है जाने वो लम्हा कब आएगा मिरी हस्ती में दिल में जो आस की क़िंदील जला जाता है क़स्र-ए-मुस्तक़बिल-ए-रा'ना भी बनाओ यारो जी बहुत माज़ी के खंडरात से घबराता है जाने क्या बात है इस धरती का चेहरा 'मेहदी' ख़ून में डूब के कुछ और निखर जाता है