इतना मजबूर आदमी क्यूँ है और अगर है तो आगही क्यूँ है हर नफ़स नारा-ए-ख़ुदी क्यूँ है इतना एहसास-ए-कमतरी क्यूँ है तीरगी इज्ज़-ए-साहिबान-ए-नज़र रौशनी तक ही रौशनी क्यूँ है आज ही तो किसी से बिछड़े हैं आज की रात चाँदनी क्यूँ है लोग क्या जाने क्या समझ बैठें 'नक़्श' से इतनी बे-रुख़ी क्यूँ है