इतना न घूम रात को फूलों की बास में सोए पड़े हैं चारों तरफ़ साँप घास में हर सम्त उस ने आतिशी शीशे लगा दिए सड़कों पे लोग आए थे काले लिबास में गर्दिश में ज़िंदगी रही अफ़्वाह की तरह उम्रें गुज़ार दी गईं ख़ौफ़-ओ-हिरास में अगला निसाब नूर-ए-बसीरत से पढ़ लिया आँखें तो छोड़ आए थे पहली क्लास में ये और बात ज़ेर-ए-ज़मीं दफ़्न हो गईं वर्ना जड़ों का ख़ून है फल की मिठास में अब बार बार उस की तरफ़ देखते हो किया अब सिर्फ़ मेरी तिश्ना-लबी है गिलास में मंज़र किसी तिलिस्म की ज़द में न हो 'नसीम' सरसों का रंग दौड़ रहा है कपास में