इतनी सी इस जहाँ की हक़ीक़त है और बस गुफ़्तार ज़ेर-ए-लब है समाअत है और बस क्यूँ आश्ना-ए-चश्म हो दीदार-ए-हुस्न का ये गिर्या-आज़माई तो आदत है और बस इतने से जुर्म पर तो न मुझ को तबाह रख थोड़ी सी मुझ में तेरी शबाहत है और बस उस को जज़ा सज़ा के मराहिल में दे दिया जिस पास एक उम्र की मोहलत है और बस आया जो दौर-ए-दश्त अचानक ही सामने ऐसा लगा कि तेरी इजाज़त है और बस हम ने कहा कि ख़त्म हुए सब मुआमलात दिल ने कहा कि क्या है? क़यामत है! और बस आईना-दार हों कि तिरा पर्दा-दार हों पेश-ए-निगाह तेरी मोहब्बत है और बस