इज़हार-ए-हक़ीक़त की जसारत नहीं होती बाग़ी हूँ मगर उस से बग़ावत नहीं होती इक मरहला ऐसा भी तो आता है जुनूँ में ख़ल्वत में भी जब लज़्ज़त-ए-ख़ल्वत नहीं होती हम मा'बद-ए-इरफ़ाँ के पुजारी हैं अज़ल से हम से शब-ए-दीजूर की बै'अत नहीं होती कुछ भी उसे कह लीजिए इंसान न कहिए वो जिस को ख़ताओं पे नदामत नहीं होती ये काम मिरे बस में नहीं मस्लहतन भी मुझ से कभी बातिल की वकालत नहीं होती यूँ क़हर-ए-ख़ुदावंद से डरता तो बहुत हूँ लेकिन कभी तौफ़ीक़-ए-इबादत नहीं होती आँखों से मिरे नींद उचक ले गया कोई ख़्वाबों में भी अब उस की ज़ियारत नहीं होती